Как я узнавал Толстого

Какъ я узнавалъ Толстого

             

  Культура…  Во дни моего дѣтства мы – я и  моя округа – и слова такого  не слыхали.  А она  была,  эта культура, проникала невидимо,  какъ  воздухъ,  вливалась  на насъ,  порой – и смѣшнымъ  путемъ.  Кругомъ  же была она!  Въ церковномъ пѣнiи, въ  благовѣстѣ, въ  пѣсняхъ и говорѣ  рабочаго народа изъ деревни,  въ  тоненькой,  за семитку,  книжкѣ въ цвѣтной обложкѣ, – до пестрыхъ  балагановъ  подъ Новинскимъ,  до Пушкина на Тверскомъ бульварѣ. Вливалось мѣтко  – чудеснымъ народнымъ   с л о в о м ъ. На самомъ  порогѣ дѣтства встрѣтилъ я  это слово,  ж и в о е  слово.  Потомъ  ужъ –  въ книгахъ. 

И вотъ,  вспоминая дѣтство, – скромное,  маленькое дѣтство,  – вижу я въ  немъ   б о л ь ш о е,  великiй подарокъ  жизни, – родное слово. 

Родное слово –  это и есть культура. 

Я уже  разсказалъ страничку моей  „культуры“, – „Какъ  мы  открывали  Пушкина“. Теперь разскажу,  какъ  мы узнавали Толстого, – я и моя округа.  

  

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Впервые о Толстомъ я  узналъ  отъ  парильщика  Ивана  Хромого,  стараго солдата.  Было мнѣ  лѣтъ восемь. Иванъ  вымылъ меня  до  лоску,  попарилъ  даже вѣничкомъ  на полкѣ,  и,  щеокча бородой  у грудки, понесъ  осторожно въ одѣвальню.  Несъ,  притопывая  на хромую ногу, и, какъ  всегда ужъ,  желая  доставить  мнѣ удовольствiе,  хрипѣлъ любимую  мою пѣсенку  про блошку: 

Блошка парилась,

Съ полка ударилась,

На приступкѣ  приступила –

Изувѣчилася!..  

Пахло отъ  Ивана  виномъ,  пахло и паромъ,  и березкой, и покачивался онъ  на хромой ногѣ,  которую  „подгрызли ему турки“,  но доставилъ меня  на диванчикъ въ  сохранности и  положилъ нѣжно,  какъ  мать  ребенка. Мѣдный  крестикъ  его прiятно  скользнулъ  по мнѣ,  щекотнулъ  холодочкомъ тѣло.   

– Ноготки ему  постричь бы надо,  какъ у  пѣтушка стали… – сказалъ онъ  парню,  ерошившему  меня  простынкой. 

 Парень сталъ меня мучить съ ножницами, а голый  Иванъ, въ одной рорзовой рубахѣ,  закурилъ свою  трубочку и,  поплясывая,  принялся  впрыгивать  въ панталоны. 

– А давешняя книжка гдѣ?...  – спросилъ онъ,  впрыгивая. – Да  какую имъ показать-то  принесъ… 

Мнѣ, значитъ.  Книжка оказалась въ водѣ,  на подоконникѣ.  Иванъ поднялъ ее двумя пальцами,  отряхнулъ,  какъ тряпочку,  о колѣнку,  брызнувъ  мнѣ на лицо,  – тоненькая была она,  розовенькая, – и подалъ мнѣ  на ладони: 

– Говорятъ,  шибко вы чиатть стали,  почитайте-нате, чего пишутъ.  Левонъ  мнѣ  далъ  поглядѣть,  лакей отъ  графа  Толстого  изъ Хамовниковъ подарилъ,  мылся.  Его,  говоритъ,  баринъ самъ  эти книжки  пишетъ,  графъ Толстой-писатель. 

До „графа“  мнѣ дѣла не было,  а книжки меня интересовали. Я поглядѣлъ  картинку, – кажется,  знакомый саможникъ сидѣлъ  на липкѣ,  – и прочиталъ  буковки-завитушки:  „Чѣмъ  люди живы“. Этого я не  понялъ. Что такое – „чѣмъ люди живы“?  Я любилъ про „Бабу-Ягу“, про „Солдата-Яшку“… – пачки ихъ  лежали у Соколова въ лавочкѣ. А тутъ даже и заглавiе непонятное. Я отложилъ  книжечку  и сталъ слушать,  что говорили Иванъ съ парнемъ.  Говорили они про  „графа“. Совсѣмъ рядомъ,  за Крымскимъ Мостомъ, въ  Хамовникахъ,  живетъ  графъ Толстой,  который самъ ходитъ  за водой на бассейну; даже и признать нельзя за графа,  одѣвается по-деревенски, въ  полушубокъ и валенки,  а живетъ въ  собственномъ домѣ, и богачъ  страшенный; что дворникъ  отъ него  и лакей ходятъ  къ намъ въ  „дворянскiя“, а   с а м ъ, будто, –  за пятакъ, въ  „простыя“,  и беретъ даже  вѣничекъ за монетку,  любитъ попариться; но только  нипочемъ  никого  не допуститъ  спину потереть, а все самъ! А когда  придетъ –  никто углядѣть не можетъ,  ранымъ-рано: ни за что не обознать,  скрывается! 

– А почему   о н ъ   скрывается? – спросилъ я,  чуя таинственное. 

– Значитъ,  такое  ужъ у   н е г о   расположенiе.  Можетъ, въ  святые хочетъ  выйтить!  Вонъ, у Троицы,  пустынникъ одинъ хоронится…  ночью только  выходитъ на рѣчку  воды набрать… Еще былъ  Сергiй  Преподобный…  Намъ  Иванъ  Иванычъ какъ  начнетъ  разсказывать  подъ котлами…  

Иванъ Иванычъ  – сынъ арендатора бань, – еще  мальчикъ,  но уже стоитъ у  сборки,  получаетъ деньги съ гостей.  И всегда  на  локоткахъ,  нагнувшись:  читаетъ книжку. 

– А онъ тоже святой, графъ?.. – спрашиваю я Ивана. 

– Неизвѣстно. Собственный домъ, и дворникъ,  и лакей… Значитъ,  не святой. Святому не полагается. 

Тоже  и я подумалъ. 

Книжечку я взялъ  почитать домой, но она мнѣ  мало понравилась.  Было прiятно,  что Ангелъ помогъ  сапожнику – сшилъ толстому  человѣку  босовики,  на смерть,  и пожалѣлъ хроменькую дѣвочку. Печльно  отъ книжки стало.         

Отъ лавочника Соколова, гдѣ я покупалъ  „изданiя  книгопродавца  Шарапова и Морозова,  три копѣйки пара, я узналъ, что графъ Толстой – „имѣется такой“ – написалъ кучу книгъ,  но сейчасъ  только одна – „Три смерти“.  

– Про страшное?  

– Понятно, про страшное! „Три смерти“!  Не одна, а сразу три!  

Я  любилъ страшное,  не разъ читалъ  въ  поминаньи,  какъ душа  ходитъ съ ангеломъ  по мытарствамъ и трепещетъ,  и сейчасъ же купилъ  „Три смерти“.  Страшнаго  не было,  но мнѣ стало еще  грустнѣе,  чѣмъ отъ „Чѣмъ  люди  живы“.  Помнится, я заплакалъ,  какъ  умирала  березка.  Но было и интересно: и въ  книжкѣ  разговаривали люди, – совсѣмъ какъ у  насъ во дворѣ,  наши. 

Соколовъ подтвердилъ,  что графъ  Толстой  живетъ совсѣмъ рядомъ,  въ Хамовникахъ,  у пивовареннаго завода,  и что онъ  большой чудакъ: по воду  ходитъ и „ничего  такого не  признаетъ“.  

– Почему онъ чудакъ? 

– Ну,  чудитъ!  Не  желаетъ  быть графомъ,  а ему не дозволяютъ. Царь  велѣлъ  быть графомъ – значитъ,  и будь графомъ,  а не капризничай.  Умнѣющiй  человѣкъ!  Да всѣ  умнѣющiй  всегда чудаки. Одинъ  такой  въ  бочкѣ жилъ. Въ святые  изъ нихъ выходятъ.

Съ той поры я  перетаскалъ отъ  Соколова  много  тоненькихъ  книжечекъ  „Посредника“.  Стали онѣ мнѣ  нравиться.  

 

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Было уже мнѣ  лет четырнадцать. 

Какъ  молодой  хозяинъ, я  пользовался въ баняхъ  уваженiемъ: мнѣ показывали водокачку,  гдѣ  ходили по кругу слѣпыя лошади,  и тянулись  изъ глубины  желѣзныя  ведра на цѣпищахъ;  водили къ котламъ, откуда  подаютъ  горячую воду  въ  бани; показывали  огромные,  какъ  дома,  красные баки на подпоркахъ,  гдѣ  шумѣла  вода  по трубамъ. Парильщикъ  Иванъ  былъ теперь  водоливомъ,  сидѣлъ у котла,  въ теплѣ, подкидывалъ  полѣнья  въ  топку и шилъ  сапоги  на рынокъ. Я мечталъ  сдѣлать  его приказчикомъ и своимъ другомъ – строить мосты и  бани. 

И вотъ,  однажды,  когда я осматривалъ  бани,  ко мнѣ  подошелъ вѣжливый  Ваня  Сахаровъ,  сынъ  нашего  арендатора,  и сказалъ,  какъ  гвоорятъ аристократы: 

– Послѣ  баньки  прошу васъ  пожаловать ко мнѣ на чашечку  чая. 

Мнѣ  очень польстило это.  Я зналъ,  что у  Вани  книгъ, – прямо до потолка! – и что  онъ  даже  сочиняетъ стихи-романы. Ему было  лѣтъ восемнадцать. Онъ не  учился  въ  гимназiи,  а окончилъ только  городское училище.  Мнѣ  казалось,  что Ваня хочетъ  похвастаться,  показать мнѣ  свои богатства. Я подумалъ: пожалуй,  ему сказали,  что я тоже сочиняю  стихи и прозу, – а я  уже написалъ  „Путешествiе на луну учителя Мартышки“, – и онъ  хочетъ со мной сойтись,  какъ съ  писателемъ. Онъ стоялъ въ баняхъ „за выручкой“, имѣлъ кучи денегъ  и могъ  покупать, что  хочешь.  Мнѣ  было интересно.

Послѣ бани я  сидѣлъ въ уютной Ваниной  комнатѣ надъ „Сѣмѣйными номѣрами  съ  мраморными ваннами“,  – значилось такъ  на вывѣскѣ  бань, – и слушалъ „собственноручное  сочиненiе  Вани  Сахарова“ – такъ  называлось  сочиненiе, – „Страшныя  Цѣпи-Оковы изъ  московской  жизни,  былъ“. 

По случаю  моего  посѣщенiя  стль  былъ  уставленъ  всякими  сладкими закусками,  пирожными  отъ Воронина, съ „безе“,  пряниками,  тянучками,  изюмомъ  и  шепталой,  а  по серединѣ  высилась  удивившая меня бутылка портвейна! Это мнѣ  было  особенно  прiятно: меня  уже считаютъ  солиднымъ человѣкомъ. И я  держалъ  себя  подобающе: облокотился  и морщилъ лобъ,  временами  покрякивалъ. Ваня  называлъ меня  по имени  и отчеству,  пожималъ мнѣ руку и говорилъ  восторженно:  

– Мы теперь съ вами сами сочинители! 

Растроганный,  я продекламировалъ  ему стихи – „О  чемъ  шумите вы, лѣса?“ – гдѣ былъ,  помнится,  такой стихъ: 

Шумѣли  всѣ лѣса,

Молчали небеса!  

Ваня  показалъ  мнѣ множество  книгъ  въ  роскошныхъ переплетахъ и все повторялъ: 

– Сами  понимаете,  стою при  сборкѣ… но  это  не воровство,  если  я у папаши  беру. И я не на кабакъ,  а на библiотеку откладываю.  Глядите:  на каждой  книжечкѣ – В. С. – Ваня  Сахаровъ! Не  можетъ  никакъ  пропасть. Вѣчное  владѣнiе! 

Чай  намъ  подавали  въ  стаканахъ  на подносѣ съ  розанами,  съ  вареньемъ въ  блюдечкахъ,  дѣвочка  поразительной красоты, съ  личикомъ  ангела.  Ваня  гладилъ  ее по  пальчикамъ  и называлъ нѣжно – „Танечка, мой  ангелъ!“ 

Какъ я  ему  завидовалъ! 

– Знаете… – мечтательно  говорилъ онъ  мнѣ, – хочу  образовать ее при посредствѣ  библiотеки и потомъ  жениться.  Надо всѣмъ  рваться  къ свѣту и стать  энтелегентами.  Жаль,  не удалось  попасть  въ  гимназiю.  Завидую я вамъ! 

Волнуясь,  краснѣя,  поминутно  вытирая  потѣвшiй  лобъ,  Ваня  прочиталъ  мнѣ  разсказъ  про одного  молодого  баньщика, который  долженъ былъ  влачить  жалкую  жизнь  среди  сырыхъ  стѣнъ,  слушать  вопли  и заунывные  свисты  сверчковъ и получать  грязные  пятаки,  когда  душа рвется  неумолимо  къ свѣту.  Герой  любитъ  красавицу и хочетъ  уйти  съ ней  на край  свѣта просвѣщать  тьму  народную,  но  скряга-отецъ грозитъ  проклятьемъ, „ежели  ты бросишь  родовое,  банное наше дѣло!“  Ваня читалъ  со слезами  въ голосѣ и все  попивалъ  портвейнъ. Попивалъ  и я и слушалъ  вдумчиво-строго,  какъ  уже умудренный.  Помню и до  сего  дня  стихи,  сочиненные  героемъ, въ мечтаньяхъ безсонной  и роковой ночи:  

Прочь  отъ вѣниковъ,  отъ бани, 

Отъ зеленыхъ пятаковъ! 

Отъ ужасныхъ сихъ оковъ! 

Стихи мнѣ не очень понравились,  но я покивалъ сочувственно. Но герою  убѣжать прочь  такъ и не удалось: отецъ  угрожалъ  проклятьемъ. Тогда герой,  Лопушковъ,  у котоораго  въ  комнатѣ  „всѣ стѣны были уставлены  книгами и портретами всѣхъ  знаменитыхъ писателей“,  въ одну ужасную ночь,  когда метель  выла по снѣжнымъ улицамъ,  потрясая  крыши и стѣны домовъ, – рѣшился  на страшный  шагъ. Онъ поджегъ  горы сухихъ  вѣниковъ,  вспыхнувшихъ,  какъ  порохъ,  и огненный вихрь  вмигъ охватилъ  эти проклятыя  бани,  гдѣ въ  вони и мыльной грязи погибали  тоскующiя  души.  Бани сгорѣли до тла, но   чудо! – завѣтная  комната съ  книгами  осталась  невредимой.  Огонь  не дерзнулъ  испепелить  священное,  и портреты  славныхъ  писателей  продолжали  взирать  изъ пламени  пожара,  паря надъ огненной стихiей, какъ…  Фениксы!  „Фениксы“  меня смутили,  но я  промолчалъ,  дѣлая видъ,  что знаю. Отецъ  героя  умираетъ  отъ потрясенiя,  такъ какъ  бани были незастрахованы, а герой  остается  на пепелищѣ,  съ сокровищами  нетлѣнными и… съ  прекрасной  подругой жизни  и смерти.  

Разсказъ произвелъ на меня  сильное  впечатлѣнiе, – Танечка даже утирала слезки, – и мы  порядочно  выпили портвейну. Два дня мнѣ было  нехорошо. Но съ  той поры я сталъ  захаживать  къ Ванѣ и брать книги. Нравилась мнѣ и Танечка. 

Какъ-то  Ваня  встрѣтилъ  меня восторженно: 

– Ахъ,  если бы вы знали,  к т о  у меня!.. 

На стѣнѣ,  въ золоченой рамкѣ,  появился портретъ  Толстого. Мало того: на  бѣлой каймѣ,  внизу,  стояло  тонкимъ и длиннымъ почеркомъ:  

Л.  Т О Л С Т О Й                          

  Самъ!..  Самъ  расписался! –  кричалъ  со слезами  Ваня,  снимая портретъ,  и благоговѣйно цѣлуя  въ  стеклышко. –  Посвятилъ  мнѣ  подпись,  собственноручно!.. 

Я и  глазамъ  не вѣрилъ. 

– Ей-Богу! – крестился Ваня. – и прочиталъ  мое  сочиненiе!.. 

– Прочиталъ…  о н ъ?!  сочиненiе?!...  – изумился я, и у меня  защемило  сердце. 

– Да, „Страшныя  Цѣпи-Оковы“! 

И я  услыхалъ  невѣроятное,  толкнувшее  и меня –  попробовать. Объ этомъ я  разскажу  какъ-нибудь  потомъ. А вотъ,  что узналъ  отъ Вани. 

Ванѣ сказали, что въ  „дворянскихъ“ моется  человѣкъ  отъ графа  Толстого,  изъ  Хамовниковъ. Онъ  перехватилъ его  еще въ „горячей“,  когда тотъ  парился,  и упросилъ  зайти на  чашку  чая,  какъ  и меня. Тамъ,  за вишневочкой  и мадерцой,  онъ  умолилъ  „человѣка“  взять его сочиненiе  и показать великому  писателю.  О томъ,  что сказалъ  графъ  про „Страшныя Цѣпи-Оковы“,  Ваня  расзказывалъ  сбивчиво: то – будто „очень  понравилось“, то –  будто бы  графъ Толстой улыбнулся  и сказалъ,  что  „все хорошо,  только  поджигать нехорошо“! 

– Самъ господинъ  лакей  графа Толстого говорилъ!  Была  у него  тетрадка! въ рукахъ  его, его!!..  даже написалъ на ней!            

– Написалъ  на тетрадкѣ! самъ?!  – поразился я. – Но вѣдь  это же  драгоцѣнность,  если  фак-си-ми-лэ!..  Дайте  посмотрѣть! 

Но тутъ… Ваня  заявилъ,  что тетрадка  у переплетчика.  Такъ я и не  видалъ  тетрадки: была  все еще у переплетчика. 

Осталось тайной: написалъ ли и что написалъ  Ванѣ Сахарову  графъ Толстой. Какъ-то  отецъ  Ванинъ  разсказалъ потомъ, что – „такъ его  тотъ графъ  за глупые пустяки отдѣлалъ,  что три  дня Ванька  ходилъ, какъ  мокрый. Дурака ему  написалъ“.  Такъ  и не разъяснилось. Но портретъ былъ самый настоящiй,  съ самой настоящей  надписью.  Были и тутъ неясности.  Сначала Ваня  восторженно говорилъ,  закатывая глаза,  словно молился на небо,  что это самъ  графъ  Толстой „прислалъ“  ему свой портретъ. Потомъ… какъ-то  ужъ выяснилось,  что портретъ купилъ Ваня въ городѣ  за два рубля и уговорилх „человѣка изъ Хамовниковъ“ упросить графа  расписаться,  и далъ ему за это пять цѣлковыхъ. 

Какъ бы тамъ ни было, но я съ того  случая  проникся  къ Ванѣ  почтенiемъ и сталъ  мечтать,  что вотъ накоплю два рубля,  куплю портретъ Толстого,  отправлюсь въ Хамовники и умолю лакея – не отойду отъ дверей!  – выхлопотать и мнѣ подпись. А пока принялся читать  „Собранiе сочиненiй  Л. Н. Толстого“,  въ  роскошномъ  переплетѣ,  появившееся  въ Ваниной  комнаткѣ,  на отдѣльной полочкѣ,  за занавѣской  изъ кумача. 

А вскорѣ произошло событiе… 

Случайно ли это вышло,  или Ваня  наконецъ-то  осуществилъ  мучившую  его мечту – „прочь…  отъ ужасныхъ сихъ оковъ“, только  произошелъ пожаръ въ  баняхъ.  Самыя то бани уцѣлѣли, – сырыя,  что  ли,  онѣ были, – вода и грязь! – а „Сѣмѣйныя номѣра съ  мраморными ванными“  сгорѣли  какъ есть  дотла,  а съ  ними  сгорѣла и  завѣтная  комнатка  съ книгами и портретомъ Толстого  съ надписью.  Ваня метался на пожерѣ и умолялъ отстоять.  Не отстояли.  Говорили, что онъ  былъ вдрызгъ пьяный,  кидался въ огонь,  какъ чумный,  и его отвезли въ  больницу.  Недолго  пожилъ послѣ этого случая: отъ скоротечно чахотки померъ.  Разсказывали  у насъ,  что красавица  Танечка ушла будто  бы въ монастырь: грамотная стала,  по-церковному бойко  читать  могла.  

Приходилъ къ  намъ  Ванинъ  отецъ,  тяжелый человѣкъ,  съ нависшими вѣками,  безглазый, – разсказывалъ:  

– Моя вина,  не доглядѣлъ. Книжками этими  досмерти  зачитался. Отъ нихъ,  знаете…  получается  въ  головѣ! И книжки его сгорѣли,  и его  за собой потащили. 

Съ нимъ  соглашались  и жалѣли: всякiя бываютъ  книжки…  а на слабую-то голову  если…! 

А я  оставался при своемъ: прикопить два рубля,  купить портретъ,  пойти  въ Хамовники, – домъ-то  я ужъ разглядывалъ, – повидать того  самаго „человѣка“ и черезъ  него  какъ-нибудь  дойти.  Рѣшилъ  написать  романъ  и уже  заглавiе придумалъ – „Два лагеря“. Мечталъ: анпишу,  получше  перепишу и понесу на судъ  самому Толстому. И вдругъ,  онъ  скажетъ,  что… 

Чудесное это было время. Радость надеждъ и священный трепетъ.  

        

1927 г. 

 

 

Источники текста

1927 - Как я узнавал Толстого: Из воспоминаний детства. День рус. культуры // Возрождение. – 1927. – 8 июня (№ 736). – (Прил.).

1931 - Как я узнавал Толстого // Родное: Про нашу Россию. – Белград: Рус б-ка, 1931. – С.141-150.

 

Текст печатается по прижизненному изданию 1931г. в оригинальной орфографии и пунктуации.